Wednesday, 16 March 2022

यहां पढ़िए कश्मीर फाइल्स की लोमहर्षक कथा

 

कश्मीर फाइल्स की लोमहर्षक कथा


हिंदू हिंदुत्व हिंदुस्तान" के खिलाफ, इसे खत्म, नष्ट, कमजोर, बर्बाद साजिश षडयंत्र पिछले 1500 वर्षों से आजतक भी हो रही है। कुछ हद तक साजिश सफल भी हुआ है। करोडों करोड़ो लोग पीड़ित हुए हैं। हिंदुस्तान को कई टुकड़ों में तोड़ कर अलग कर लिया गया है। और टुकड़े करने की साजिश सोच षडयंत्र किया जा रहा है। ये न्यूज़ आप www.operafast.com पर पढ़ रहे है ।

जो भी हुआ , उसकी तो जितनी भी भर्त्सना की जाए वह कम है । उसे तो शब्दों में भी वर्णित नहीं किया जा सकता , सच को सच और झूठ को झूठ कहने का साहस तो हर व्यक्ति में होना ही चाहिए। हर हिंदुस्तानी को अपने राष्ट्र,और अपनी संस्कृति, अपने परिवार को बचाने के लिए शस्त्र और शास्त्र दोनों मैं पारंगत होना आवश्यक है। साथ ही अपने धर्म के प्रति बेहद जागरूक होना भी बेहद आवश्यक है । सम्मान सभी का करें । किंतु अपने धर्म के मान सम्मान और स्वाभिमान से समझौता करना कायरता है ।


कश्मीरी पंडितों के साथ जघन्य हिंसा और फिर उनका दुखद पलायन देश के लिए पहाड़ जैसी शर्मिंदगी का कारण था , है और रहेगा हम आज तक उन्हें न्याय नहीं दे पाए हैं उन्हें उनकी मातृभूमि में फिर से सम्मान के साथ बसा नहीं पाए हैं इससे ज्यादा कष्टपूर्ण और क्या होगा


आज द कश्मीर फाइल फिल्म देखा, मैं बता नहीं पा रहा हूं अत्याचार तो बहुत छोटा शब्द है जो कश्मीरी हिंदुओं ने सहा है। आज मैं अपने भारत का इतिहास देखा हूं। मैं विवेक अग्निहोत्री साब का आजीवन आभारी रहूंगा।

जमीर मरने से भी लोग मुर्दा हो जाते हैं । कश्मीर के मसले में यही हुआ । जनता किससे न्याय की उम्मीद करती, जिससे उम्मीद थी वही तो गुनहगारों का सरपरस्त था

हिजड़े भी इतने बेगैरत नहीं होते जितने बेगैरत हमारे देश के उस वक्त के रहनुमा थे।


नायला बलोच पाकिस्तान में रहकर भी अपने देश भारत की जन्म भूमि से इतना लगाव रखती हैं और सब कुछ इतनी बारीकी से जानती हैं कुछ लोग अपने देश में रहकर भी इतनी गन्दी सोच रखते हैं क्या कहे उनके बारे में । नायला बलोच ने ट्वीटर पर इतनी बारीकी से कथानक को बताया है ,क्या कहु? इतनी बारीकी से किया है । जैसे कभी कभी लेखनी में सरस्वती समा जाती है झकझोरती है, जैसे विवेक अग्निहोत्री जी की फ़िल्म। उनकी लेखन कला का जादू है, पर ज्यादा रंग सच्चाई का है। ये तड़प सिर्फ महसूस किया वाला नहीं हो सकता । एक एक शब्द दिल में उतर रहा है, कश्मीरी हिंदुओ की इतनी पीड़ा इनको भी है ।


फिल्मकार विधु विनोद चोपड़ा जो ख़ुद कश्मीरी हैं , की कश्मीर पर बनी फ़िल्म शिकारा:द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कश्मीरी पंडित भी देखी है पर वह फैंटेसी थी। व्यावसायिक और बेईमानी भरी फ़िल्म थी। कश्मीरी पंडितों के नरसंहार का आंखों देखा हाल नहीं बताती थी शिकारा। मनोरंजन करने वाली फ़िल्म थी।

सो उस में अंतर्विरोध भी बहुत थे। मनोरंजन में दबा डायरेक्टर दुःख बेच तो सकता है ,दुःख दिखा नहीं सकता। दुःख महसूस करने की चीज़ होती है। नरसंहार की कहानी में प्यार और प्यार के गाने नहीं फिट हो सकते।कैसे फिट हो सकते हैं भला तो विधु विनोद चोपड़ा ने प्रेम कहानी परोस दी थी।

कई बार दुःख चीख़ कर सामने आता है तो कई बार चुपचुप तो कश्मीर फ़ाइल्स चुपचाप चीख़ती है। चीख़ती हुई कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की लोमहर्षक कथा कहती है। बिना लाऊड हुए।कश्मीरी पंडितों के लहू में डूबी कथा। क्या स्त्री,क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान,सब के लहू में डूबी अंतहीन लहू की कथा।

जेहाद के क्रूर हाथों और इन जेहादियों को मदद करता सत्ता का सिस्टम।क्या मास्टर,क्या डाक्टर,क्या पत्रकार,क्या पुलिस अफ़सर,क्या आई ए एस अफ़सर। हर कोई जेहादियों के निशाने पर है। प्रताड़ित और अपमानित है। नर संहार का शिकार है।कब कौन बेबात मार दिया जाए , कोई नहीं जानता।

लेकिन शारदा पंडित को सब के सामने नंगा कर सार्वजनिक रुप से घुमाना और आरा मशीन में चीर देना,देख कर कलेजा मुंह को आ जाता है।

कुछ समय पहले कश्मीरी पंडित दिलीप कुमार कौल की एक कविता पढ़ी शहीद गिरिजा रैना का पोस्टमार्टम इस कविता में गिरिजा रैना के साथ यही जेहादी सामूहिक बलात्कार कर आरा मशीन में चीर दिया जाता है। यह कविता पढ़ कर भी मैं हिल गई थी नहीं सो पाई थी लेकिन ऐसी ह्रदय विदारक घटनाओं की कश्मीर में तब बाढ़ आई हुई थी। सारे मानवाधिकार संगठन रजाई ओढ़ कर सो गए थे। पूरे देश में जेहादी आतंकवाद मासूम नागरिकों को अपना ग्रास बनाए हुए था। पर सेक्यूलरिज्म के मुर्ग़ मुसल्लम में सब के सब ख़ामोश थे। जब अपने ऊपर आतंकी हमले का लोग प्रतिकार करने में शर्मा रहे थे,कहीं सांप्रदायिक न घोषित कर दिए जाएं, इस लिए लजा रहे थे। तो कश्मीरी पंडितों पर भला कोई क्यों बात करता।

यहां तो लव जेहाद के खिलाफ बोलना भी हराम बता दिया गया था। कश्मीरी पंडितों पर आज भी कुछ बोलिए और लिखिए तो विद्वान लोग बताते हैं कि यह तो माहौल ख़राब करना है।इन विद्वानों के दामाद जेहादी जो चाहें,करें। नरसंहार भी करें तो वह मनुष्यता के हामीदार कहलाते हैं। लेकिन इन विद्वानों के दामाद जेहादियों का हत्यारा चेहरा दिखाने वाला सांप्रदायिक क़रार दे दिया जाता है।

हिंदू-मुसलमान करने वाला बता दिया जाता है। भाजपाई , संघी और भक्त की गाली से नवाज़ा जाता है।अजब नैरेटिव गढ़ दिया गया है। इसी लिए जो बालीऊड कभी हर चार में दो फ़िल्म की शूटिंग कश्मीर में करता था , कम से कम गाने तो करता ही था।इन कश्मीरी पंडितों का नरसंहार भूल गया। दाऊदकी बहन हसीना पार्करका चेहरा साफ़ करने के लिए हसीना पार्कर पर फ़िल्म बनाना तो याद रहा।पर कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और उन को कश्मीर से जेहादियों द्वारा भगा देना भूल गया। हेलमेट, हैदर और मुल्क़ जैसी प्रो टेररिस्ट फ़िल्में लेकिन बनाता रहा यही बालीबुड।लेखक,बुद्धिजीवी,पत्रकार ही नहीं फ़िल्मकार भी सेक्यूलरिज्म और हिप्पोक्रेसी के कैंसर से पीड़ित हैं। कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म के ख़िलाफ़ फतवा जारी हो गया है कि यह फ़िल्म माहौल ख़राब करने वाली फ़िल्म है। ऐसे जैसे कश्मीर फाइल्स ने इन के नैरेटिव पर हमला कर दिया हो। फ़िल्म देखने के बाद आप पाएंगे कि कश्मीर फ़ाइल्स सचमुच इन हिप्पोक्रेट्स पर बहुत कारगर और क़ामयाब हमला है।इन के सारे नैरेटिव ध्वस्त कर दिए हैं इस अकेली एक फ़िल्म ने। कश्मीर फ़ाइल्स देखने

के बाद "दो आंखें बारह हाथ" फ़िल्म में भरत व्यास का लिखी वह एक प्रार्थना याद आती है ।

ऐ मालिक तेरे बंदे हम,

ऐसे हो हमारे करम

नेकी पर चले और बदी से टले, ताकी हँसते हुये निकले दम !!


फ़िल्म शुरु होते ही पूरे सिनेमाघर में एक अजीब निस्तब्धता छा जाती है।हाल हाऊसफुल है पर पिन ड्राप साइलेंस। ऐसी ख़ामोशी,ऐसी नीरवता किसी फ़िल्म में अभी तक नहीं देखी थी। कभी नहीं। शाम सात बजे का शो है। ज़्यादातर लोग परिवार सहित आए हैं। पर कहीं कोई खुसफुस नहीं।

फ़िल्म की गति,कथा की यातना ऐसी है,विषय ऐसा है कि कुछ और सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता।अचानक इंटरवल होता है।भारी क़दमों से,भारी मन से कुछ लोग उठते हैं। जल्दी ही लौट कर फिर अपनी-अपनी कुर्सियों पर धप्प से बैठ जाते हैं। बिन कुछ बोले।

फिल्म रिफ्यूजी कैम्प के टेंट में गरमी और विपन्नता उन की साथी है। मिथुन कश्मीर में उन की वापसी का प्रबंध करते हैं। एक आरा मशीन में नौकरी का प्रबंध भी और यहीं उन की बहू शारदा पंडित को सब के सामने नंगा कर आरा मशीन में लगा कर चीर दिया जाता है। इसी के बाद गिन कर चौबीस कश्मीरी पंडितों को लाइन से खड़ा कर गोली मार देते हैं जेहादी। मास्टर का पोता शिवा सब से छोटा बच्चा है ,इस नरसंहार में। मास्टर शिवा के छोटे भाई कृष्ण को ले कर दिल्ली में हैं अब। पेट काट-काट कर वह उसे पढ़ाते हैं। बड़ा होता है तो "जे एन यू "में दाखिला लेता है। छात्र संघ की राजनीति में पड़ जाता है। जेहादियों की संगत में आ जाता है। छात्र संघ के अध्यक्ष का चुनाव लड़ता है। प्रोफेसर राधिका मेनन के आज़ादी,आज़ादी " ले के रहेंगे आज़ादी" के जादू में आ जाता है। पुष्कर नाथ उसे बहुत समझाते हैं पर कृष्णा किसी सूरत नहीं समझता।

प्रोफ़ेसर राधिका मेनन ने उस का पूरी तरह ब्रेन वाश कर दिया है। इतना कि उसे अपने ग्रैंड फ़ादर की बातें जहर लगती हैं।उसे बता दिया है राधिका ने कि कश्मीरी पंडितों ने कश्मीरी लोगों का इतना शोषण किया कि उन के ख़िलाफ़ क्रांति हो गई और उन्हें कश्मीर से भागना पड़ा कि कश्मीरी जेहादी फ्रीडम फाइटर हैं। बुहान वानी हमारा हीरो है अफजल हम शर्मिंदा हैं,तेरे कातिल ज़िंदा हैं जैसे नारे लगाने लगता है कृष्णा। बात-बेबात वह इस मसले पर घर में मास्टर पुष्कर नाथ से लड़ जाता है। पुष्कर नाथ भट्ट की ग़लती यह है कि उन्हों ने कृष्णा के माता-पिता और भाई शिवा को जेहादियों ने नरसंहार में मार दिया बताने के बजाय स्कूटर दुर्घटना में मारा बताया होता है। ताकि उस के मन पर विपरीत प्रभाव न पड़े। दर्शन कुमार ने कृष्णा का यह अंतर्विरोधी चरित्र जिया है।

अचानक जब पुष्कर का निधन हो जाता है तो "जे एन यू" का यह कृष्णा जब पुष्कर की अस्थियां ले कर कश्मीर जाने को होता है। पुष्कर नाथ भट्ट की इच्छा है कि उन की अस्थियां उन के कश्मीर वाले घर में ही बिखेर दी जाएं। उन के कुछ मित्रों की उपस्थिति में। तब तक धारा 370 हट चुका है।कश्मीर में नेट बंद है। राधिका मेनन,कृष्णा को 370 हटाने के ख़िलाफ़,इंटरनेट बंद होने के ख़िलाफ़ ब्रेन वाश कर के कश्मीर भेजती है।अपने कुछ संपर्क के सूत्र देती है। फोन नंबर देती है कि जाओ इन से मिलो। इन की कहानी इन से सुनो। इन पर कितना अत्याचार हुआ है,ख़ुद देखो।और यह कहानी ला कर ख़ुद सुनाओ।

कृष्णा पहुंचता है आई ए एस अफ़सर ब्रह्मदत्त के घर। सारे मित्र इकट्ठे होते हैं। पुरानी यादों में खो जाते हैं। फ्लैश बैक में आते-जाते रहते हैं। फिल्म की यह एक बड़ी कमी है कि बहुत सारी बातें, अत्याचार और नरसंहार की बातें दृश्य में कम, संवाद में ज़्यादा हैं। बहुत से विवरण संवादों के मार्फ़त परोसे गए हैं। दृश्य में होते तो और ज़्यादा प्रभावी होते। संवाद लेकिन असर डालते हैं। जैसे दूरदर्शन के रिपोर्टर को जब डाक्टर बात-बात में आस्तीन का सांप कह देता है।दोनों गुत्थमगुत्था हो जाते हैं।दूरदर्शन का रिपोर्टर अपनी ख़बरों में सरकार के निर्देश पर झूठ बहुत परोसता है।आंखों देखा झूठ। लेकिन पुलिस अफ़सर की भूमिका में पुनीत इस्सर अचानक रिपोर्टर को डाक्टर से अलग कर झटक देता है।

कश्मीर से लौट कर जब कृष्णा जे एन यू में अपना भाषण देता है तब जा कर कहीं दर्शन के अभिनय में आंच आती है। कश्मीर के इतिहास और कश्मीरी पंडितों के गुणों और उन की विद्वता का आख्यान और उस का व्याख्यान जिस तरह दर्शन ने अपने अभिनय में परोसा है ,वह अप्रतिम है। एरियन तक को कोट किया है।ऋषि कश्यप ,आदि शंकराचार्य आदि सब के योगदान को रेखांकित करते हुए कश्मीर का सारा वैभव बताते हुए बताया है कि क्यों जन्नत कहा गया है , कश्मीर को। जिसे जेहादियों ने जहन्नुम बना दिया। जेहादियों की पैरवी का सारा ब्रेनवाश राधिका का धरा का धरा रह जाता है।  अर्बन नक्सल की भूमिका में पल्लवी जोशी का अभिनय बा कमाल है। जे एन यू में ले के रहेंगे आज़ादी के माहौल पर निर्देशक ने जो प्रहार किया है अभूतपूर्व है।कभी नक्सलाइट रहे मिथुन वामपंथी मृणाल सेन जैसे निर्देशक के अभिनेता रहे हैं।

पूरी फ़िल्म सभी दर्शक जैसे सांस रोके निस्तब्ध हो कर देखते रहे। लेकिन आख़िर में जब कश्मीरी पंडितों को जेहादी लाइन से खड़ा कर गोली मारने लगते हैं तभी हाल में अचानक सारी निस्तब्धता तोड़ कर "मोदी-योगी "ज़िंदाबाद के नारे हाल में लगने लगते हैं। बहुत ज़ोर से उधर परदे पर गोलियां चलती रहती हैं,इधर मोदी-योगी , ज़िंदाबाद ! के नारे। अचानक यह नारा जैसे समवेत हो गया।स्त्रियों का स्वर भी इस में मिल गया। मिलता गया। ऐसे जैसे कोई बड़ा फोड़ा फूट गया हो।उस का सारा मवाद बाहर आ गया हो।इस नारे में इतना गुस्सा और जोश मिला-जुला था। अचानक मैं अवाक रह गई। मुझे लगा,जैसे सिनेमा घर में नहीं किसी राजनीतिक रैली में हूं।परदे पर कश्मीरी पंडितों की लाश बिछ चुकी थी एक गड्ढे में। एक के ऊपर एक। 

मोदी-योगी का नारा मद्धिम पड़ ही रहा था कि सब से छोटे बच्चे शिवा को ज्यों गोली मारी गई और वह जा कर लाशों के बीच गिर गया।कि तभी जेहादियों के लिए भद्दी-भद्दी गालियां शुरु हो गईं। तेज़-तेज़। जाहिर है अब तक सभी दर्शकों का खून लेखक,निर्देशक और अभिनेता लोग खौला चुके थे। लेकिन सिनेमा घर में यह दृश्य देख कर लगा कि यह फ़िल्म दो-तीन महीने लेट आई। अगर तीन महीने पहले आई होती तो उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के  परिणाम में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ पड़ गया होता।

अपनी पिछली फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ की तरह लेखक-निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री ने इस बार भी कहानी कहने का वही पुराना तरीका चुना है जिसमें कुछ लोग बैठ कर अपनी-अपनी बातों और तथ्यों के ज़रिए अतीत के पन्ने पलट रहे हैं और इन पन्नों पर लिखी इबारतों से उस दौर का सच सामने आ रहा है। लेकिन इस बार विवेक (और सौरभ एम. पांडेय) का लेखन पहले से काफी ज्यादा मैच्योर और संतुलित है। शायद इसलिए भी कि कश्मीरी पंडितों के नरसंहार और विस्थापन का दौर बहुत ज़्यादा पुराना नहीं है और उससे जुड़े लगभग तमाम तथ्य दस्तावेजों में मौजूद हैं। लेकिन फिर यह हैरानी भी होती है कि महज 32 साल पुराने ये तथ्य अब तक सामने क्यों नहीं आए?आए तो उन पर बात क्यों नहीं हुई? हुई तो कोई तूफान क्यों नहीं उठा? यह फिल्म वही तूफान उठाने आई है।

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